Madhu varma

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लेखनी कविता -भेष का अंग -कबीर

भेष का अंग -कबीर 


माला पहिरे मनमुषी, ताथैं कछू न होई ।
 मन माला कौं फेरता, जग उजियारा सोइ ॥1॥

 'कबीर' माला मन की, और संसारी भेष ।
 माला पहर्‌यां हरि मिलै, तौ अरहट कै गलि देखि ॥2॥

माला पहर्‌यां कुछ नहीं, भगति न आई हाथ ।
 माथौ मूँछ मुँडाइ करि, चल्या जगत के साथ ॥3॥

साईं सेती सांच चलि, औरां सूं सुध भाइ ।
 भावै लम्बे केस करि, भावै घुरड़ि मुंडाइ ॥4॥

केसों कहा बिगाड़िया, जो मुँडै सौ बार ।
 मन को काहे न मूंडिये, जामैं बिषय-बिकार ॥5॥

स्वांग पहरि सोरहा भया, खाया पीया खूंदि ।
 जिहि सेरी साधू नीकले, सो तौ मेल्ही मूंदि ॥6॥

बैसनों भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक ।
 छापा तिलक बनाइ करि, दगध्या लोक अनेक ॥7॥

तन कों जोगी सब करै, मन कों बिरला कोइ ।
 सब सिधि सहजै पाइये, जे मन जोगी होइ ॥8॥

पष ले बूड़ी पृथमीं, झूठे कुल की लार ।
 अलष बिसार्‌यो भेष मैं, बूड़े काली धार ॥9॥

चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात ।
 एक निसप्रेही निरधार का, गाहक गोपीनाथ ॥10॥

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